subodh

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Tuesday 4 November 2014

30 . पैसा बोलता है ...

डर खुद में एक परिस्थिति भर है ,हम है जो उसे आकार देते है .हम है जो उसे छोटा बनाते है या बड़ा बनाते है या नगण्य बनाते है या चुनौती बनाकर खुद को मजबूत बनाते है !

गरीबी से पैदा होने वाली मज़बूरियों का डर हमे पैसा कमाने की विवशता देता है , इस डर का सामना हम पैसा कमा कर करते है . संसार के अधिकांश लोग गरीब होने से बचने के लिए पैसा कमाते है - अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए , हलकी-फुल्की सुविधाएँ पूरी करने के लिए . 

वे एक डर का , गरीबी के डर का सामना बड़े ही हलके स्तर पर करते है उस डर को पूरी तरह नेस्तनाबूद नहीं करते , वे रोटी के लिए संघर्ष करते है ,कपडे के लिए ,छत के लिए ,टी.व्ही . के लिए, फ्रीज के लिए संघर्ष करते है- यानि उतने ही पैसे के लिए करते है जितना वे अपने कम्फर्ट जोन में रहते हुए पैदा कर सके.

वे अपने बर्तन को बड़ा नहीं करते , क्यों ?

क्योंकि बर्तन जितना बड़ा होता है उसे इस्तेमाल करना , साफ़ रखना , सम्हालना उतनी ही मेहनत मांगता है , जब छोटे बर्तन से काम चल रहा है तो बड़े की क्या ज़रुरत ?

क्योंकि उनका संघर्ष पैसे कमाने का है ,अमीर बनने का नहीं है .

 हकीकत में वे आवश्यकता और सुविधा के डर को जीतते-जीतते खुद को इतना ज्यादा थका हुआ मान लेते है कि वे और नयी चुनौती का सामना नहीं करना चाहते . उनका दायरा वो तालाब बन जाता है जो मेंढक का होता है - कम्फर्ट जोन से बाहर आना हमेशा पीड़ा देता है ,दर्द देता है, मेहनत देता है  और ये पीड़ा का डर,दर्द का डर ,मेहनत का डर पावों की बेड़ियां बन जाता है . लिहाजा वे अपने संघर्ष को अमीरी का संघर्ष नहीं बना पाते .

वे अमीर बनना चाहते है लेकिन अमीर बनने की कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते.क्योंकि इस सौदे में अमीरी जो कीमत उनसे मांगती है वो उन्हें बहुत महँगी लगती है और गरीब मानसिकता के लोग सस्ते के आदी होते है , महँगा होने का डर उनकी चाहत पर भारी पड़ता है !!!
- सुबोध 

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