subodh

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Saturday 31 January 2015

31 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


अँधेरा नकारा पक्ष नहीं है रोशनी का वो तो सिर्फ ये बताता है कि यहाँ रोशनी नहीं है इसी तरह समस्या ये बताती है कि वर्तमान में आपके पास ऐसा विचार नहीं है जो तथाकथित समस्या का समाधान दे सके . समस्या कभी ये नहीं कहती कि मेरा समाधान नहीं है बल्कि ये तो आप स्वयं है  जो किसी तटस्थ परिस्थिति को समस्या का नाम देते है .

हो सकता है किसी अन्य के लिए आपकी समस्या कोई समस्या ही नहीं हो ठीक वैसे ही जैसे आपका अँधेरा उल्लू के लिए अँधेरा नहीं होता - उस बेचारे की तो रोशनी से आँखे चुंधिया जाती है  यानि आपका अँधेरा किसी के लिए सुकून हो सकता है और किसी की रोशनी आपके लिए दर्दनाक अनुभव - ठीक उसी उल्लू की तरह .

ज़िन्दगी कभी भी किसी की भी सीधी और सपाट नहीं होती फिर वो चाहे कोई भी क्यों न हो , हर एक को अपने हिस्से की गलतियाँ ,असफलता , अपमान , हताशा और अस्वीकार्यता झेलनी ही पड़ती है - कोई भी इस दौर से बच नहीं सकता . वो आप ही है जो इसे आसान बनाते है या मुश्किल , वो आप ही है जो इन मुश्किलों से गुजरकर निखरते है या बिखरते है , वो आप ही है जो खड़े होकर हर उलटे-सीधे वार को झेलते है और विजयी बन कर निकलते है या पीठ दिखा कर तहस -नहस हो जाते है , वो आप ही है जो अब तक ज़िंदा है - सारी परेशानियों के बावजूद - यानि आपने अपने हिस्से की अब तक की सारी मुसीबतें झेल ली है और आप जानते है कि वो मुसीबतें छोटी नहीं थी फिर भी आप ज़िंदा है . यकीन मानिये आपके ज़िंदा होने में किसी और से ज्यादा आपकी जिजीविषा का हाथ है,आपके सुदृढ़ विचारों का हाथ है  जो अँधेरे में रोशनी की तलाश भर है ,फिर वो चाहे अँधेरी ऊंघती सुरंग के पार के दूसरे सिरे पर मौजूद रोशनी का एहसास ही क्यों न हो या विचारों में दादी- अम्मा से सुनी हुई वर्षों पुरानी कहानियों में हर विकट परिस्थिति का सफलतापूर्वक सामना करने का कौशल - अँधेरे पलों में जलती हुई टोर्च .

जिन्हे आप समस्याएं मानते है दरअसल वो आपकी दिमागी खुराफात के अलावा कुछ नहीं है. आइये एक अलग तरीके से सोचे , जिसे आप समस्या कहते है उसे चुनौती कहकर देखे - आपका सोचने का, समझने का और खेलने का नजरिया बदल जायेगा और फिर चुनौती का सामना करना , एक लक्ष्य को पूरा करना टास्क बन जाता है जबकि समस्या आपके हाथ-पैर फुला देती है इसी तरह अँधेरे को समस्या के तरीके से देखने पर  हताशा होती है जबकि अँधेरे को चुनौती के तौर पर देखने पर दीपक याद आता है , मोमबत्ती याद आती है, लालटेन याद आती है , बिजली याद आती है ,आग याद आती है और बंद अँधेरी गुफा में दो पत्थरों की तलाश की जाती है - चकमक पत्थर की . 
ज़िन्दगी आसान नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है , परिस्थिति आसान नहीं है लेकिन समस्या भी नहीं है - वो आप है और आपके सोचने का तरीका जो चीज़ों को आसान बनाता है या मुश्किल , बदलाव अंदर से शुरू होता है -जड़ों से ,तभी तो बाहर अच्छे फल आते है  - आइये अच्छे फल पाने के लिए अंदर से बदले ,हमारे सोचने के तरीके को बदले !!!
- सुबोध 

Tuesday 13 January 2015

30 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


तुम्हारा सच जड़ हो गया है , वक्त के चक्के में कहीं जाम हो गया है , उम्र तुम्हारी बढ़ी है लेकिन तुम्हारी सोच समय के किसी कालखण्ड में फंसी रह गयी है और उस दौर के तत्कालीन सच में ही अटकी हुई है तभी तो तुम कल जिन आशीर्वादों के कुछ अर्थ हुआ करते थे वही आशीर्वाद दोहराते जा रहे हो, जबकि आज वो आशीर्वाद एक बेवकूफी के बराबर हो गए है जैसे पूतों फलों या शतायु हो .
कहते है बहता हुआ सब शुद्ध होता है , नदी की तरह- जहाँ रूक गया ,ठहर गया वहीँ गंदलापन हावी होने लगता है फिर वो चाहे विचारों का बहाव ही क्यों न हो या कस कर पकड़ा हुआ सच ही क्यों न हो !!! जिन्होंने ये कहा है कि सच स्थायी होता है, हो सकता है उनका सच स्थायी हो लेकिन मेरी निगाहों में सब कुछ अस्थायी होता है , हाँ, कुछ सच दिनों में बदलते है, कुछ सालों में , कुछ सदियों में और कुछ युगों में - स्थायी कुछ नहीं होता ;उनकी सच की तासीर उन्हें मुबारक- तब तक उन्हें मुबारक जब तक मेरे सच से उनका सामना न हो .
मुझे तुम्हारे इस पकडे हुए सच से ,ठहरे हुए सच से ,जड़ हो चुके सच से,अपना औचित्य खो चुके सच से कोई दिक्कत नहीं है ,जब तक तुम मुझ से ये उम्मीद नहीं करते कि मैं तुम्हारे सच को स्वीकार करूँ - अपने सच को छोड़ कर ,त्याग कर,भूल कर - जो मैंने मेरे अनुभव से हासिल किया है !!
अगर तुम,मेरे सच को स्वीकार नहीं कर सकते तो कृपया मुझसे अपने सच को स्वीकार करने की मत कहो क्योंकि तुम्हारा सच तुम्हारा अनुभूत सच है और मेरा सच मेरे अपने अनुभव की देन है -- तुम्हारा सच तुम्हे मुबारक और मेरा सच मेरे पास रहने दो . अगर तुम मेरा सच स्वीकार करने को तैयार हो तो मैं भी तुम्हारा सच स्वीकार करने को तैयार हूँ इस शर्त पर कि फिर उन दोनों सचों को आपस में गलबहियां करने दो और जो पटखनी दे दूसरे को उस सच को तुम भी मानो और मैं भी - निर्णायक आज के युग को हो , वर्तमान के हो क्योंकि सबसे अहम सिर्फ वर्तमान होता है .
तुम राजा राम मोहन राय के ज़माने से पहले के सच को आज भी पकड़ कर बैठे हो और मैं औरत की संपूर्ण स्वतंत्रता की बात करता हूँ और मजे की बात ये है कि हम दोनों एक ही प्लेटफार्म पर खड़े है- हंसी भी आती है और अफ़सोस भी होता है हंसी इसलिए कि तुम जैसी मानसिकता के लोग आज भी ज़िंदा है और अफ़सोस इसलिए कि मंगल ग्रह तक जाने की बात करने वाले लोग तुम्हारे दिमाग की उलझी हुई तहों तक नहीं पहुँच पा रहे है !!!! उन तहों तक जो ज़माने को ,प्रगति को,इंसानियत को आगे बढ़ने से रोके हुए है !!!
सुबोध-जनवरी १३,२०१५
आभार सहित निम्न ब्लॉग से लिया गया
http://ameerbane.blogspot.in/