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Wednesday 26 November 2014

35 . पैसा बोलता है ...

" अंकल, मेरे उत्तर पर मुझे जीरो दिया गया है क्या मैं गलत हूँ ?अंकल ,आप सही और ईमानदार जवाब देना " मेरे पडोसी कपूर साहेब का पंद्रह साल का लड़का मुझसे पूछ रहा था.

प्रश्न ये था "रावण को किसने मारा ?"

और कपूर साहब के लड़के ने जवाब दिया था "रावण को उसके  अहंकार ने मारा ."

उसकी टीचर ने न सिर्फ उसे जीरो दिया था बल्कि पूरी क्लास के सामने उसकी बेइज्जती भी की थी कि "हम पहली और दूसरी क्लास से ही ये सीखा रहे  है कि रावण को राम ने मारा और तुम इतने साल में भी ये याद नहीं कर पाये ."

मैंने उसे समझाने की  कोशिश की " हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें रटना सिखाती  है, इस शिक्षा व्यवस्था में सोचने पर पाबंदिया  होती है ,क्योंकि रटने पर जवाब सिर्फ एक ही होता है लेकिन सोचने पर जवाब एक से अधिक हो सकते है .और टीचर्स इतने मैच्योर और समझदार नहीं होते है कि एक से अधिक जवाब सुन और समझ सके क्योंकि ऑफ्टरऑल उन्हें भी रटना ही सिखाया गया है ."

 मैंने उसके चेहरे पर उलझन और न समझ में आने वाले भाव देखकर एक प्रयास और किया  " हमारी शिक्षा व्यवस्था औद्योगिक युग की है जहाँ बताये गए काम को ठीक उसी के अनुरूप करना होता था जैसा बताया गया है वहां क्रिएटिविटी के लिए कोई जगह नहीं होती थी और गलतियों के लिए कोई गुंजाइश भी नहीं होती थी लिहाजा एक सवाल का एक ही उत्तर - खांचे में फिट ,न कम न ज्यादा ,न छोटा न बड़ा .और हमारे  टीचर्स के लिए भी ये आसान था , उन्होंने एक बार रट  लिया और ज़िन्दगी गुजर गई . "

मेरी कोशिश असफल रही उसका विकसित होता दिमाग इस जड़ता को पचा नहीं पा रहा था ,जो जवाब पहली और दूसरी क्लास के लिए सही था वही जवाब दसवीं क्लास में भी ! क्या दिमाग नहीं बढ़ा ? फिर जवाब वही क्यों अटका हुआ है ? "रटने" से आगे हमारे टीचर्स "समझने" की शुरुआत क्यों नहीं करते ?

सालों से हमारे टीचर्स ,हमारे पेरेंट्स हमे कह रहे है "अच्छे से पढाई करो,अच्छे नंबर लाओ ,अच्छी नौकरी ढूंढो और अच्छे से गुजारा करो." इतनी बार दोहराया गया है कि हमे याद हो गया है ,हमने उनके दोहराये वाक्यों को रट लिया है ,लिहाजा हम पढाई या नौकरी से बाहर भी ज़िन्दगी होती है ये समझना ही नहीं चाहते है ,हमे रटाया गया याद है कि राम को रावण ने मारा और हम हमारी क्रिएटिविटी कि रावण को उसके अहंकार ने मारा भूल गए है ,भुला दिए गए है . हम एक चेक से दूसरे चेक का इंतज़ार करते है लेकिन खांचे के बाहर झांकने की हिम्मत और ज़ुर्रत नहीं करते कि टीचर हमे जीरो नहीं दे देवे .हमारी गरीबी की वजह ,पैसे की कमी की वजह रटाये गए जवाब है जिन्होंने हमारी क्रिएटिविटी ख़त्म कर दी है -  हमारे दिमाग को सीमित और संकुचित  कर दिया है.
 सुबोध - नवंबर २७,२०१४




Monday 10 November 2014

34 . पैसा बोलता है ...

पैसे के कुछ सिद्धांत होते है .

अगर कम पैसे कमाने हो तो ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है ,काम खुद करना पड़ता है ,  मेहनत  का रूप शारीरिक होता है, एवं जिम्मेदारी कम  होती है अगर ज्यादा पैसा कमाना हो तो कम मेहनत करनी पड़ती है, काम दूसरों से करवाना पड़ता है. मेहनत का रूप मानसिक होता है ,जिम्मेदारी ज्यादा होती है. 

बहुत से लोग जो  ज्यादा पैसा कमाना चाहते है उन्हें ये बात समझ में नहीं आती कि कम मेहनत करकर भी ज्यादा पैसे कमाए जा सकते है क्योंकि उन्होंने आज तक " पैसे कमाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है " , "हार्ड वर्क इज की ऑफ़ सक्सेस "   जैसे वाक्य सुने है,पढ़े है . 

मैं बहुत छोटे स्तर पर चीज़ों को लिख रहा हूँ विस्तार और सन्दर्भ स्वयं तलाश लीजियेगा .

कृपया बताये पेमेंट काम करने पर मिलता है या काम के परिणाम पर ?
आप को गौर से देखने पर पता चलेगा कि गरीब मानसिकता वाले लोगों के पास समय होता है लिहाजा वे अपने समय को बेचते है अपने शरीर को बेचते है यानि मज़दूरी करते है . उन्हें मजदूरी करने पर, काम करने पर, मेहनत ज्यादा करने पर  पेमेंट मिलता है .

जबकि अमीर मानसिकता के लोगों के पास दिमाग होता है लिहाजा वे अपने दिमाग को लगाते  है यानि काम करनेवाले मजदूरों को इकट्टा करते है और उनसे काम करवाते है.चूँकि वे परिणाम (RESULT ) को बेचते है तो उन्हें परिणाम देने पर पेमेंट मिलता है .

 मज़दूर को मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है उसकी मेहनत का स्वरुप शारीरिक होता है लिहाजा वो जितनी ज्यादा मेहनत करेगा उतनी ही ज्यादा बढ़ोतरी पायेगा और उसके लिए" हार्ड वर्क इज की ऑफ़ सक्सेस" एक सही मुहावरा हो जायेगा .जिसमे काम ख़राब होने पर या मुनाफा न होने पर जिम्मेदारी उसकी नहीं होगी बल्कि मालिक या ठेकेदार की होगी . उसे अपने दिए गए समय का निर्धारित मूल्य मिलेगा .

दूसरी तरफ अमीर मानसिकता के लोगों को  पता है कि जो वस्तु ज्यादा उपलब्ध होती है उसके रेट कम होते है और जो वस्तु कम उपलब्ध होती है उसके रेट ज्यादा होते है ये मांग और आपूर्ति का मामला है .श्रम की आपूर्ति  बहुत ज्यादा है मांग से भी बहुत ज्यादा लेकिन परिणाम की आपूर्ति मांग से बहुत कम है.लिहाजा वे अपनी वित्तीय शिक्षा की बदौलत श्रम न बेचकर परिणाम  बेचते है और परिणाम बेचने के लिए मजदूरों को इकट्ठे करकर उनसे रिजल्ट लेना होता है ,वो मज़दूरों से मेहनत करवाने के लिए मैनेजर टाइप का कोई बंदा अपॉइंट  करते  है और परिणाम प्राप्त करते है . चूँकि वो खुद कुछ नहीं करते उनके  सारे काम  उनका   मैनेजर करता है लिहाजा उनके   लिए  " हार्डवर्क इज  की ऑफ़ सक्सेस "  एक गलत मुहावरा हो जायेगा .ऐसे लोगों के लिए सही मुहावरा  " स्मार्टवर्क इज  की ऑफ़ सक्सेस " होता है क्योंकि ये काम को स्मार्ट तरीके से करते है .इनकी शुरू में नेटवर्क बनाने की मेहनत ही हार्डवर्क होती है , नेटवर्क बनाने के बाद ये अपनी जिम्मेदारियाँ  दूसरों पर छोड़ते जाते है और खुद किसी अगले स्मार्टवर्क की तरफ मूव करते है .

अगले किसी प्रोजेक्ट में मजदूरों का नेटवर्क बनाने के लिए इनका मैनेजर इनके पास रहता  है  और ये एक के बाद एक इस तरह के प्रोजेक्ट करते जाते है . अगर इस कांसेप्ट को आप बराबर समझ जाते है तो ये आपके समझ में आ जायेगा कि अमीर ज्यादा अमीर क्यों बनते जाते है .

वैसे भी कहावत है आपको पहला लाख बनाने में टाइम,मेहनत,दिमाग लगाना पड़ता है फिर अगला लाख बनाने में वक्त नहीं लगता क्योंकि तब आपको  लाख बनाने का फार्मूला पता हो जाता है .
सुबोध

Saturday 8 November 2014

33 . पैसा बोलता है ...

अगर अमीरी आपके लिए महत्त्वपूर्ण  है तो क्या ये आपके डेली के कामों में प्रायोरिटी रखती है ?

क्या आप हर रोज़ ऐसा कुछ अलग कर रहे है जिससे आप अमीरी तक पहुँच सके ?

अमीरी या गरीबी मेरी निगाहों में भाग्य की बात नहीं है ये आपके सतत प्रयासों का नतीजा होती है, आपके कर्म से निर्धारित होती है .गरीबी और अमीरी दोनों ही आपके कामों का परिणाम है -कुछ ऐसे काम जिन्हे अमुक तरीके से करना चाहिए  और कुछ ऐसे काम जो नहीं करने चाहिए ये सही- सही जानना ही आपकी अमीरी और ये नहीं जानना ही आपकी गरीबी की बुनियाद है .

महत्त्वपूर्ण ये है कि आप ये कैसे जानेंगे कि कौनसा काम करना चाहिए और कौन सा नहीं करना चाहिए ? 

इसके लिए आपको खुद को लगातार शिक्षित करना पड़ेगा. ये जानना पड़ेगा कि अमीरों की सोच,उनकी भावनाएं ,उनकी कार्यपद्धति क्या है और वो जैसी भी है वैसी क्यों है , उनकी सोच एक निर्धारित पैटर्न पर ही क्यों है ,वो ऐसी किन चीज़ों पर जोर देते है जिन्हे नेग्लेक्ट करना भारी पड़ सकता है !

आपको पढ़ कर शायद आश्चर्य हो कि अमीरों की सोच गरीबों की सोच से सिर्फ हलकी सी अलग नहीं होती है बल्कि तकरीबन विपरीत होती है .

गरीबों के लिए जो शब्द महत्व पूर्ण होते है उनका अमीरों के लिए कोई महत्व ही नहीं होता बल्कि कई मामलों में तो गरीबों के लिए जो दर्दभरा अनुभव होता है अमीरों के लिए वो अपनी संपत्ति बढ़ाने का अवसर होता है ,जैसे खरीदने के समय महँगाई . या जैसे बेचने के टाइम मंदी . दोनों ही स्थिति में गरीब कुछ खोता है और अमीर पैसा बनाता है .

गरीब जिस चीज़ की सबसे ज्यादा परवाह करता है वो है नौकरी की सुरक्षा  .जबकि  नौकरी करने का एक सीधा से मतलब है आप अपने श्रम से किसी दूसरे को अमीर बना रहे हो और  अमीर और गरीब में सबसे बड़ा फर्क ये नज़र आता है कि अमीरों  को नौकरी करना ही समझ में नहीं आता . लिहाजा वे एम्प्लोयी न बनकर एम्प्लायर बनते है. नौकरी करते नहीं है बल्कि करवाते है . 

कुछ लोग इस बात को समझ जाते है कि ज़िन्दगी में लम्बी ग्रोथ के लिए आपको अपना खुद का व्यवसाय करना पड़ेगा ,अगर अमीर बनना है तो एम्प्लायर बनना पड़ेगा , खुद का बिज़नेस करना पड़ेगा और वो ऐसा ही करते है .

वो कोई बिज़नेस शुरू करते है और असफल हो जाते है , क्यों ?

 ऐसा क्यों होता है कि कोई किसी लाइन में जाकर भयंकर पैसा पैदा करता है और कोई लगाई हुई पूँजी भी गवां बैठता है ?

जिस तरह गरीब आदमी पैसे के सिद्धांतों को नहीं समझ पाता उसी तरह ये असफल बिजनेसमैन बिज़नेस के सिद्धांतों को नहीं समझ पाते .मैं उन असफल बिजनेसमैन को गरीब और सफल बिजनेसमैन को अमीर कहूँगा .
गरीब  प्रोडक्ट बेहतर करने का प्रयास करता है कि मेरा प्रोडक्ट ,मेरी क्वालिटी अच्छी हो ,वो अपनी पूरी एनर्जी,पूरी ताकत प्रोडक्ट बेहतर बनाने में लगा देता है जबकि अमीर प्रोडक्ट पर नहीं टीम बनाने पर काम करता है वो एक प्रॉपर सिस्टम बनाने पर काम करता है ,टीम को शिक्षित करने ,क्लाइंट को संतुष्ट करने , मार्केटिंग करने पर मेहनत करता है वो जानता है कि प्रोडक्ट महत्वपूर्ण है लेकिन वो ये भी जानता है कि प्रोडक्ट से ज्यादा महत्व प्रेजेंटेशन का है ,मार्केटिंग का है,कस्टमर केयर सपोर्ट सिस्टम का है .

गरीब का विज़न बड़ा नहीं होता वो एक स्टोर जिस पर उसने खुद बैठना है वही तक सोच रखता है लिहाजा वो एक पूरा सिस्टम बनाने की सोच नहीं रखता है और इसी की वजह से वो मार खाता है वो हर चीज़ की जिम्मेदारी  खुद उठाना चाहता है और इसी वजह से  अपने नीचे एक जवाबदेह समूह तैयार नहीं कर पाता. हकीकत में  उसके अंदर अभी भी एक नौकर छुपा हुआ है ,वो बिज़नेस के नाम पर नौकरी करता है . जबकि अमीर सबसे पहले,हाँ प्रोडक्ट से भी पहले एक जवाबदेह समूह तैयार करता है .

गरीब  सबसे पहले खुद को पेमेंट देना चाहता है  , वो व्यवसाय के मूल सिद्धांत को भूल गया है या हो सकता  कि उसे पता ही नहीं हो कि  बिजनेसमैन  को बिज़नेस के शुरू में नहीं  सबसे आखिर में और सबसे ज्यादा  भुगतान मिलता है .

गरीब को  जानना चाहिए कि बिज़नेस में सबसे पहले इंफ्रास्ट्रक्चर पर होने वाले खर्चे निकाले जाते है. फिर एम्प्लोयी को , फिर उन प्रोफेशनल सेवाएं देने वालों को  जिनकी बदौलत कंपनी ग्रो कर रही है,  फिर उन निवेशकों को जिन्होंने उस पर, उसके कॉन्सेप्ट पर भरोसा करकर उसकी  कंपनी में पैसा लगाया है ,पेमेंट दिया जाता है और तब जो बचता है वो उसको  मिलता है और वही उसे  लेना चाहिए  - अमीर बिजनेसमैन यही करते है ! 

जबकि होता ये है कि गरीब सबसे पहले खुद को पेमेंट करता है फिर अपने शौक को,अपनी इच्छाओं को पूरा करता है - वो प्रॉफिट के साथ-साथ प्रिंसिपल अमाउंट का भी कुछ हिस्सा  खर्च कर देता है ( कई मर्तवा तो वो निवेशकों तक के पैसे का भी इस्तेमाल  कर लेता है ) और तब नंबर उन लोगों का आता है जिनके पेमेंट का उस पर सबसे ज्यादा प्रेशर होता है ,लिहाजा कंपनी की पेमेंट को लेकर साख बिगड़ती जाती है , सप्लायर उनको माल देने में हिला-हवाली  करते है या लेट देते है या मना कर देते है ,एम्प्लोयी उन्हें छोड़  कर चले जाते है और अंततः जो होना चाहिए था वो होता है ,वह असफल होकर या तो नए बिज़नेस की तलाश शुरू कर देता है या अपने सुरक्षित खोल में लौट जाता है उसी पुरानी या उससे मिलती-जुलती नौकरी में. 

और भी बहुत सी वजहें है जो किसी गरीब मानसिकता के व्यक्ति को गरीबी के दलदल से निकलने नहीं देती - उन के बारे में किसी अगली पोस्ट में ....
-सुबोध 

Friday 7 November 2014

32 . पैसा बोलता है ...

गरीब आदमी की गरीबी बढ़ानी हो तो उसे पैसे दीजिये और उसकी गरीबी दूर करनी हो तो उसे ज्ञान दीजिये ऐसा ज्ञान जो किताबी नहीं ,व्यवहारिक हो .

किताबी ज्ञान एक बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ऐसा ज्ञान स्कूलों  और पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने के काम ही आ सकता है . आश्चर्य तब होता है जब आर्थिक विषयों के पढ़ाने वाले प्रोफेसर जो करोड़ों की बातें करते है,करोड़ों कमाने के तरीके सिखाते है  और खुद हज़ारों की सैलरी पर जिन्दा रहते है. किताबी ज्ञान और व्यवहारिक ज्ञान का फर्क समझने के लिए ये बेहतरीन उदाहरण है .

कुछ  भिखारियों  से पुछा गया -

अगर तुम्हे एक करोड़  रुपये दिए जाए तो तुम उन पैसों का क्या करोगे ?

पहले का जवाब था - बाबूजी , मैं आराम से पुरी ज़िन्दगी भर-पेट खाना खाऊंगा और आराम की नींद सोऊंगा !

दूसरे का जवाब था- बाबूजी, मैं जब भीख मांगता हूँ तो मेरे पैरों में कंकड़ बहुत चुभते है , मुझे बड़ी पीड़ा होती है, मैं पूरी सड़क पर  मखमल के गलीचे बिछा दूंगा !

उनका जवाब उनकी  सोच और उनका  भविष्य बेहतरीन तरीके से दिखाता है .

अगर गरीब को पैसा दिया जाता है तो क्या होगा, सोचिये ? वो उस पैसे का क्या करेगा ?

वो सिर्फ अपनी सुविधाओं पर , अपनी खुशियों पर खर्च करेगा ! बड़ी टी.व्ही. खरीदेगा, फ्रीज खरीदेगा, ए.सी. खरीदेगा ,बड़ा मकान किराये पर लेगा ,सरकारी स्कूल से निकाल कर प्राइवेट स्कूल में अपने बच्चे को डालेगा , साइकिल छोड़ कर बाइक या कार खरीदेगा यानि सुख-सुविधाएँ जुटाएगा . 

और कुछ सालों तक  उसे जब लगातार पैसे दिए जायेंगे तो ये उसकी आदत  में आ जायेगा , वो नए प्रयास ,ज्यादा कोशिश करना बंद कर देगा क्योंकि उसे जो मिल रहा है वो उसके लिए सुकून भरा है  और परिणाम जिस दिन उसे पैसे देने बंद कर दिए जायेंगे उसमें इतनी भी संघर्ष क्षमता नहीं बचेगी कि वो ज़िन्दगी के थपेड़े झेल सके . यानि उसकी हालत पहले से ज्यादा ख़राब हो जाएगी वो पहले से ज्यादा गरीब हो जाएगा !!

ध्यान रखे सुरक्षा और सुविधा आपकी व्यक्तिगत संघर्ष क्षमता को कमजोर करती है और कई बार तो ख़त्म तक कर देती है .

आदिम मानव में ये क्षमता थी कि वे जंगली जानवरों का शिकार कर सके ,हमे हासिल लगातार की सुरक्षा और सुविधा ने हमारी वो क्षमता ख़त्म कर दी ,इसे सिर्फ एक उदाहरण भर समझ जाये ,मेरा लिखने का मतलब ये नहीं है कि जाकर पुरानी क्षमता हासिल करने का प्रयास किया जाए और वन्य प्राणी कानून  का उल्लंघन  किया जाये .

और अगर पैसे कि बजाय उन्हें  ( गरीबों को ) व्यवहारिक ज्ञान दिया जाएगा तो क्या होगा ,ये आप स्वयं बेहतर समझ सकते है !

सुबोध 

Thursday 6 November 2014

31 . पैसा बोलता है ...

अक्सर कहा जाता है अमीर अमीरी के राज नहीं बताते !ये एक मिथ जैसा बन गया है ! 
चुटकुले के तौर पर कहा जाता है कि मारवाड़ी परिवारों में अपनी बेटी को धंधे  के गुर नहीं बताये जाते क्योंकि कल वो पराये घर जाएगी और उन्हें भी वो राज बता देगी ! ये चुटकुला अमूनन उन सेमिनारों में सुनाया जाता है जो " अमीर बनो " टाइप के होते है !
आइये थोड़ा इसका विश्लेषण करें -
क्या कोई अमीर अपनी बेटी किसी गरीब घर में देगा ?
नहीं, अमीर हमेशा अपनी बेटी अपनी बराबरी या अपने से ऊँचे अमीर घर में देगा .
तो जब उसकी बेटी की ससुराल पहले से  ही पैसेवाली है तो ज़ाहिर सी बात है उसे अमीरी के राज़ भी पता होंगे ! तो ये बात निहायत ही गलत है कि अमीर अपनी बेटी को धंधे  के राज़ नहीं बताते . कोई बाप अपनी बेटी के सामने शर्मिंदा नहीं होना चाहता जिस बात को वो शादी से पहले राज़ बना कर रखना चाहता है जब शादी के बाद वो राज़ नहीं रहेगा तो क्या कभी बेटी ये बात अपने बाप से नहीं पूछेगी कि आपने मुझे ये क्यों नहीं सिखाया .

दूसरी बात - अमीरी पाने में सोच और निर्णय सिर्फ एक व्यक्ति का हो सकता है लेकिन ये एक समूह के  प्रयासों का परिणाम  होती  है ,एक टीम वर्क की उपलब्धि होती है और ज़ाहिर सी बात है जहाँ टीम इन्वॉल्व हो जाती है वहां राज नामक कोई चीज़ नहीं रहती .


तो फिर ये गलत बातें उठाई कहाँ से गई है ?
" अमीर बनो " टाइप के सेमीनार करने वाले इस तरह की बाते कहकर उस बात को राज़ बना कर बेचना चाहते है जो दरअसल में राज़ है ही नहीं .

उनमे ये अहंकार हो कि हमने इस बारे में स्टडी की है 10  साल इसे जानने में लगाया है, 700 बुक्स पढ़ी है ,ढेरों विद्वानों को सुना है और वो इसे बेचने के लिए इस तरह की बाते गढ़ते   है .एक सेल्स ट्रिक की तरह .


सच हमेशा व्यक्तिगत होता है हो सकता हो ये उनका निजी अनुभव हो और जिसे उन्होंने सच का नाम दे दिया हो !

मेरी निगाह में ये उनका खुद को बेचने का एक तरीका भर है .


लेकिन  समाज भी तो यही कह रहा है ?

अक्सर गैर-जिम्मेदार ,कामचोर लोगों को खुद के बचाव के लिए किसी बहाने की तलाश होती है .पहले की पीढ़ियों ने अपनी नाकामयाबी को छुपाने के लिए एक बहाना गढ़ा और खुद को दोषी मानना बंद कर दिया कि हम तो मासूम है ,हमे क्या पता अमीर कैसे बना जाता है, ये तो बहुत बड़ा राज़ है और वे इसे जाते-जाते अगली पीढ़ी को सौंप गए , अगली पीढ़ी ने इसे सच मान लिया और उस सच को - उस थोपे गए झूठे सच को सच मान लिया कि अमीरी बहुत बड़ा राज़ है ! 


हर गरीब के पास एक अमीरी भरा अतीत होता है पांच पीढ़ी पुराना -सात पीढ़ी पुराना ,ज़ाहिर  सी बात है तब उस पीढ़ी को अमीरी के राज़ पता थे लेकिन बाद वाली  पीढ़ी उस तथाकथित राज़ को, उन नसीहतों को समझ नहीं पाई  , निभा नहीं पाई इसलिए  उनका सुनहरा अतीत आज दहशतजदा वर्त्तमान हो गया है - लिहाजा बात राज़ की नहीं रह जाती किसी बात को बराबर समझने और सीखने की रह जाती है. 


दरअसल अमीर मानसिकता उदारता भरी मानसिकता होती है वो पैसे की बहुलता देखती है वो इस तरह की छोटी सोच रख ही नहीं सकती .ये कुल मिलाकर उन के चरित्र पर किया गया दुराग्रह भरा आक्षेप  भर है ! 

मिर्ज़ा ग़ालिब  का एक शेर है-

हम  को  मालूम  है  जन्नत  की  हक़ीक़त  लेकिन 
दिल  के  खुश  रखने  को  'ग़ालिब  'ये  ख्याल  अच्छा  है .

कृपया उन लोगों की या मेरी बातों को मत सुनिए और न ही उन्हें सच मानिये बल्कि खुद की सुनिए , क्योंकि कोई आपको अमीर बना सकता है तो वो सिर्फ आप खुद है ! असंभव कुछ नहीं होता अगर ठान लिया जाए ,रुकने वाले के लिए हज़ार "  बहाने " होते है और चलने वाले के लिए सिर्फ एक " वजह " , सिर्फ उस एक वजह की तलाश कीजिये जो आपकी अमीरी की यात्रा की बैक -बोन बन सके !
सुबोध 

Tuesday 4 November 2014

30 . पैसा बोलता है ...

डर खुद में एक परिस्थिति भर है ,हम है जो उसे आकार देते है .हम है जो उसे छोटा बनाते है या बड़ा बनाते है या नगण्य बनाते है या चुनौती बनाकर खुद को मजबूत बनाते है !

गरीबी से पैदा होने वाली मज़बूरियों का डर हमे पैसा कमाने की विवशता देता है , इस डर का सामना हम पैसा कमा कर करते है . संसार के अधिकांश लोग गरीब होने से बचने के लिए पैसा कमाते है - अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए , हलकी-फुल्की सुविधाएँ पूरी करने के लिए . 

वे एक डर का , गरीबी के डर का सामना बड़े ही हलके स्तर पर करते है उस डर को पूरी तरह नेस्तनाबूद नहीं करते , वे रोटी के लिए संघर्ष करते है ,कपडे के लिए ,छत के लिए ,टी.व्ही . के लिए, फ्रीज के लिए संघर्ष करते है- यानि उतने ही पैसे के लिए करते है जितना वे अपने कम्फर्ट जोन में रहते हुए पैदा कर सके.

वे अपने बर्तन को बड़ा नहीं करते , क्यों ?

क्योंकि बर्तन जितना बड़ा होता है उसे इस्तेमाल करना , साफ़ रखना , सम्हालना उतनी ही मेहनत मांगता है , जब छोटे बर्तन से काम चल रहा है तो बड़े की क्या ज़रुरत ?

क्योंकि उनका संघर्ष पैसे कमाने का है ,अमीर बनने का नहीं है .

 हकीकत में वे आवश्यकता और सुविधा के डर को जीतते-जीतते खुद को इतना ज्यादा थका हुआ मान लेते है कि वे और नयी चुनौती का सामना नहीं करना चाहते . उनका दायरा वो तालाब बन जाता है जो मेंढक का होता है - कम्फर्ट जोन से बाहर आना हमेशा पीड़ा देता है ,दर्द देता है, मेहनत देता है  और ये पीड़ा का डर,दर्द का डर ,मेहनत का डर पावों की बेड़ियां बन जाता है . लिहाजा वे अपने संघर्ष को अमीरी का संघर्ष नहीं बना पाते .

वे अमीर बनना चाहते है लेकिन अमीर बनने की कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते.क्योंकि इस सौदे में अमीरी जो कीमत उनसे मांगती है वो उन्हें बहुत महँगी लगती है और गरीब मानसिकता के लोग सस्ते के आदी होते है , महँगा होने का डर उनकी चाहत पर भारी पड़ता है !!!
- सुबोध