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Friday 10 April 2015

36 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


रोटी की कीमत एक भूखा इंसान ही समझ सकता है , नौकरी की कीमत उससे पूछे जिसकी अभी-अभी नौकरी छूटी हो .पैसे की कीमत उससे पूछे जिसने अपना सब कुछ गवाँ दिया हो !!
असफलता , टूटन , हताशा ज़िन्दगी का मकसद नहीं है लेकिन ये भावनाएं हमसे उसी तरह चिपकी हुई है जिस तरह जिस्म से चमड़ी.
इंसान की ज़िन्दगी उस खेल की तरह है जिसमे एक पल हम ऊपर होते है और दूसरे पल नीचे , मुसीबत ये है कि हम ज़िन्दगी के उन पलों में जीते है जब हम नीचे होते है हम ऊपर होकर भी नीचे होने के खौफ में जीते है .
जो इंसान भूखा रह चूका है- भूख की पीड़ा , दर्द , ऐंठन, उबकाई, जकड़न जैसे दौर से गुजर चूका है वो इंसान सामने भरपूर खाना होने के बाद भी उस भूख के एहसास को जीता रहता है और छप्पन भोग को भी एक दंड समझता है और उस दंड से बचने के लिए या तो वो संग्रह करता है या उसे बर्बाद करता है ;यहाँ संग्रह करने का अर्थ चीज़ होने के बाद भी उसका भरपूर उपयोग न करने से है और बर्बाद करने से अर्थ फ़िज़ूलखर्ची से है .
भूख सिर्फ खाने की ही नहीं होती , मान -सम्मान की होती है ,पहुँच की होती है, सुविधाओं की होती है , पैसे की होती है और भी ढेरों चीज़ों की होती है और मानवीय प्रकृति के अनुसार हम हर भूख के साथ यही करते है या तो उसे संग्रह करके सजा कर रखते है या उसे दोनों हाथों से लूटा देते है .
इसे थोड़ा पैसे के सन्दर्भ में सोचिये, समझिए और यकीन मानिये आपके सन्दर्भ का विस्तार होने लगेगा , अपनी उन गलतियों को याद कीजिये जो पैसे को लेकर आपने की है जहाँ इसे खुला छोड़ना चाहिए था वहां किस बुरी तरह जकड कर रखा था और जहाँ इसे सम्भालना चाहिए था वहां दोनों हाथों से लूटा दिया था .
जिन गलतियों को किया है उन गलतियों को अगर नहीं किया जाता तो क्या होता ?
जिन पलों में हम ऊपर थे उन पलों को हम नीचे के खौफ में क्यों गुजारते रहे है- क्यों उन पलों को, उन पलों की सोच को साकार होने दिया ?
मुझ से किसी जवाब की उम्मीद मत कीजिये , क्योंकि मेरा जवाब मेरे लिए है और आपका जवाब आपके लिए ,सवाल सबके लिए एक हो सकते है लेकिन जवाब हमेशा निजी होते है !!
सुबोध-मार्च २६, २०१५

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